जीवन क्यों एक त्रासदी बन गया ?
माँ भी पुत्र चाहती थी
बेटी जनने कि सजा उसे पता थी
पर ,मैंने ही उसकी गोद में आँखें खोली |
मुझ अनचाही संतान से
उसकी कोख धन्य नहीं हुई ,
हाँ , चूल्हा -चौका सम्हालने में
मुझसे कुछ सहूलियत मिल गई |
विवाह की उम्र तक
घर में शरण मिला रहा ,
फिर कन्यादान कर
पिता भी बोझ मुक्त हुए |
अब एक नया मालिक था मेरा ,
इस पशु -पति से निभाना ही मर्यादा थी ,
शर्म-संकोच मेरा गहना ,
ख़ामोशी मेरी पहचान थी |
हाथ पत्थर से हो गए
पैर बीवा इयों से भर गए ,
धीमे -धीमे
मैं पूरी पथरा गई
अब लोग मुझे देवी कहते हैं |
बीनू IRS
ACIT, NADT,NAGPUR
क्योंकि इस ब्लॉग की रचनाएँ अधिकांशतः अन्य व्यक्तियों द्वारा रचित हैं, मैंने तो बस उनसे उधार लिया हैं !इसके लिए मैं सभी ज्ञात अज्ञात रचनाकारों को धन्यवाद देता हूँ..
Thursday, April 7, 2011
जीवन ,, (बीनू द्वारा रचित )
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