Saturday, November 20, 2010

"मैं अकेला" रचनाकार: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।

पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला ।

जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला ।

शब्दार्थ:
भेला = पुराने ढंग की नाव

1 comment:

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