चींटी और व्यवस्था
बचपन में एक कहानी सुनी थी, जो आज भी बहुत प्रचलित है।
एक तोता और एक मैना का जोड़ा था। एक बार भयानक सूखा पड़ा। लोग अनाज के दाने-दाने को तड़पने लगे। तोता-मैना उड़ते-उड़ते जा पहुँचे किसी दूर देश में जहाँ उन्हें एक चने का दाना मिला�! उस चने के दाने को उन्होंने अपनी चोंचों से एक खूँटे से रगड़कर दो भागों में तोड़ने की कोशिश की। दाना टूट तो गया, लेकिन दो दालों में से एक दाल उसी खूँटे में फँस गई। मैना चालाक थी और बची हुई दाल को लेकर उड़ गयी। अब तोते के हिस्से की दाल बची और वह भी खूँटे के अन्दर। तोता बढ़ई के पास गया और बोला-
“बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीरो,
खूँटे में दाल बा,
का खाई का पीई, का ले परदेस जाई�?”
बढ़ई ने मना कर दिया, “हट तोता, मेरे पास इतना समय नहीं कि खूँटा चीरूँ तुम्हारे छोटे से काम के लिए।” तोता राजा के पास गया और बोला-
“राजा-राजा बढ़ई मारो,
बढ़ई न खूँटा चीरे,
खूँटे में ..................”
राजा ने भी मना कर दिया। तोता रानी के पास गया और बोला-
“रानी-रानी राजा छोड़ो,
राजा न बढ़ई मारे,
बढ़ई ....................”
रानी ने भी मना कर दिया। तोता साँप के पास गया-
“साँप-साँप रानी डँसो,
रानी न राजा छोड़े,
राजा न बढ़ई मारे,
बढ़ई ...................”
साँप ने भी मना कर दिया। तोता लाठी के पास गया।
“लाठी-लाठी साँप मारो,
साँप न रानी डँसे .................
..................................”
लाठी ने भी मना कर दिया। तोता आग के पास गया-
“आग-आग लाठी जारो,
...............................”
आग ने भी मना कर दिया। तोता नदी के पास गया। (यहाँ नदी के स्थान पर कहीं-कहीं समुद्र का जिक्र मिलता है।)
“नदी-नदी आग बुझाओ,
...........................”
नदी ने भी मना कर दिया। तोता हाथी के पास गया-
“हाथी-हाथी नदी सोखो,
............................”
हाथी ने भी मना कर दिया। तोता रोते हुए जा रहा था। उसका विलाप एक चींटी ने सुना। उसने कहा कि चलो मैं तुम्हारी समस्या का समाधान करने की कोशिश करती हूँ। वह सीधे हाथी की सूँड़ के अन्दर घुस गयी और काटने लगी।
हाथी परेशान हो गया और बोला-
“हमें काटो-वाटो मत कोई, हम नदी सोखब लोई”
और वह नदी सोखने नदी के पास जा पहुँचा। नदी बोली-
“हमें सोखो-वोखो मत कोई, हम तो आग बुझाइब लोई”
और इस तरह धीरे-धीरे क्रम आगे बढ़ई तक पहुँच जाता है। बढ़ई राजा से कहता है-
“हमें मारो-वारो मत कोई, हम खूँटा चीरब लोई”
और आखिर में कहानी के दो रूप मिलते हैं-
एक में खूँटा कहता है-
“हमें चीरो-ऊरो मत कोई, हम दाल देब लोई।”
और दूसरे में बढ़ई खूँटा हल्का सा चीर देता है और तोते को दाल मिल जाती है।
बचपन में सुनी इस कहानी को उस समय सुनने में मज़ा तो बहुत आया, किन्तु इसके शाब्दिक अर्थ से अलग हटकर अिधक समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन आज जितना ही सोचता हूँ, इस कहानी को सामाजिक दर्शन के एक शक्तिशाली आयाम को निरूपित करता हुआ पाता हूँ। कभी-कभी तो लगता है कि पूरी सामाजिक और प्रशासनिक प्रक्रिया को जैसे यह कहानी निचोड़ कर हमारे सामने लाकर रख देती है। इन सघन क्रियाओं का जितना सहज निरूपण यह कहानी कर देती है वह शायद कहीं और देखने को नहीं मिलता है।
सबसे अहम भूमिका इस कहानी में चींटी की है। चींटी की विचार-प्रक्रियाओं पर जरा हम विचार करें। आत्म बलिदान तक हो जाने, आत्मोत्सर्ग तक की शक्ति ज़रूर उस चींटी में थी। यदि हाथी ने चींटी को मसल दिया होता तो�? यह ख़्ातरा तो चींटी ने उठाया ही था और ऐसी ही चींटियाँ, व्यवस्था की सोच की धारा को बदल सकती हैं।
फिर यह चींटी है कौन�? यदि हम समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वह और कोई नहीं समाज का एक आम आदमी है और हाथी है व्यवस्था। एक अदना सा आम आदमी भी बहुत हद तक बदल सकता है व्यवस्था को। वही बस उठ जाये तो सारी व्यवस्था की सोच में परिवर्तन हो जाता है। लेकिन वह उठेगा हाथी के पास जाने के लिए, हाथी की सोच में परिवर्तन लाने के लिए, तो दब जाने की आशंका तो बनी ही रहेगी और उस आशंका से उठकर जब वह हिम्मत करेगा, तभी वह हाथी की सूँड़ में जाकर हाथी की सोच की दिशा बदल देने की स्थिति में आ पायेगा।
खूँटा, बढ़ई, राजा, रानी, आग, लाठी, नदी और हाथी; ये सभी व्यवस्था के विविध आयाम हैं। विविध फलक हैं। इन सबकी सोच में परिवर्तन हो सकता है, एक छोटी-सी चींटी की उमंग से कि चलो मैं एक सही काम के लिए, व्यवस्था से जूझने के लिए तैयार हूँ, आत्मोत्सर्ग के लिए तैयार हूँ।
यहाँ पर दो बातें और महत्त्वपूर्ण हैं। बढ़ई को केवल खूँटे को जरा सा चीर कर दाना निकाल देना था। राजा को भी बढ़ई को केवल डाँटकर काम करा देना था। किसी को जान का खतरा नहीं था। लेकिन किसी को तोते के प्रति जरा भी संवेदना नहीं हुई। लेकिन चींटी को इतनी संवेदना हुई कि वह जान की बाजी लगाकर हाथी के पास पहुँची। तो व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा के लिए तीव्र संवेदना का होना आवश्यक है।
दूसरी बात यह कि चाहे बढ़ई हो, राजा हो, लाठी हो या साँप हो, हर एक के पास तोता गिड़गिड़ाते हुए गया लेकिन किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। चींटी ने स्वयं ही तोते का दुःख देख उसके रोने का कारण, दुःखी होने का कारण पूछा। यह होती है सच्ची संवेदना। यदि कोई किसी से अपनी ज़रूरत बताये और गिडगिड़ाये और तब वह निराकरण की चेष्टा करे तो वह सच्ची संवेदना नहीं कही जा सकती। सच्ची संवेदना तो यह है कि जब कोई अपनी तरफ़ से दूसरों के दुःख को जानने की कोशिश करे और उसके निराकरण में जुट जाये जैसा कि चींटी ने किया।
यहाँ एक प्रश्न और भी उठता है�? यह तो सच है कि बढ़ई संवेदनहीन था। लेकिन क्या राजा, रानी, साँप, नदी, लाठी, आग भी केवल संवेदनहीन थे�? या उन सबमें निहित स्वार्थवश एक गठजोड़ भी था, जिसकी वजह से न तो वे एक-दूसरे की शिकायत सुनने को तैयार थे और न ही सज़ा देने को। इसकी प्रबल सम्भावना है कि निहित स्वार्थवश उनमें एक गठजोड़ रहा हो और वह केवल भयवश ही अंत में टूट सका।
वैसे इस कहानी में व्यवस्था का एक अच्छा फलक भी देखने को मिलता है। तोते को अपनी बात बेबाक़ कहने के लिए, बढ़ई, राजा, रानी, साँप, लाठी, आग, नदी, हाथी तक पहुँचने को तो मिल गया। वह बेरोक-टोक उनके पास पहुँच तो सका। आज का माहौल शायद और बिगड़ गया है। आज एक छोटा आदमी व्यवस्था के उच्च शिखरों तक पहुँच ही नहीं सकता, इसलिए और भी यह कहानी प्रासंगिक हो जाती है। अब तोते की सारी आशाएँ मात्र चींटी से ही रह जाती हैं।
अब आते हैं इस कहानी के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू पर। तोते के चींटी से मिलने और चींटी के पास जाने तक जो व्यवस्था थी वह अक्रियाशील थी, असंवेदनशील थी। जब चींटी उठी तो पूरी व्यवस्था क्रियाशील हो उठी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था में जो अंग हैं, वे वही हैं। वही बढ़ई है, वही राजा है, वही नदी है, वही लाठी है, वहीं साँप है, वही हाथी है। सब कोई अक्रियाशील थे और थोड़े ही अन्तराल में सब कोई क्रियाशील हो गये, एक चींटी के कमर कस लेने से। किसी को कोई अत्यिधक भागदौड़ भी नहीं करनी पड़ी। बस थोड़ा-सा भय और थोड़ा-सा अपने कर्तव्य का आभास और एहसास हो गया तो पूरी कार्यपद्धति में क्रियाशीलता आ गयी।
तो यही व्यवस्था और इसी व्यवस्था के लोग अच्छा काम कर सकते हैं। यही राजनीतिज्ञ, अिधकारी, नौकरशाह, प्रबन्धक, अध्यापक, व्यापारी, वकील, डॉक्टर सभी ठीक से काम कर सकते हैं। बस आम आदमी को चींटी बनना होगा।
चींटी भी एक सांकेतिक बिम्ब है। चींटी निरूपित करती है सीढ़ी में जो सबसे नीचे और छोटा-सा बिन्दु है उसे। उसके दबने की भी गुंजाइश कम रहती है। चींटी ने तो व्यवस्था में परिवर्तन कर दिया लेकिन क्या एक कुत्ता वह कर पाता जो चींटी ने किया�? कुत्ता तो हाथी को देखकर भागता। उसे दूर से ही देखकर भौंकता रहता। एकदम नज़दीक जाने की हिम्मत नहीं करता। हाथी एक बार चिंघाड़कर सिर्फ उधर देखता तो वह काफी दूर तक दौड़कर भाग जाता।
चींटी की जगह पर उससे बड़ा जीव इस कहानी में नहीं आया। चींटी को दबाने में, कुचलने में भी हाथी को परेशानी है। चींटी से बड़े जीव जैसे मेढक या चूहे को हाथी आसानी से अपने पैरों से या सूँड़ से दबा सकता है। शरीर की क्षुद्रता के साथ अदृश्यता भी जुड़ी है, जो जितना छोटा होगा, उतना ही कठिनता से दिखेगा। चींटी को तो हाथी बमुश्किल देख पायेगा और साथ ही पैर से यदि दबाता भी है तो भी चींटी शायद ही मरे, जब तक कि वह हाथी के नाखूनों की चपेट में न आ जाये। हाथी के पैर ही जरा सा दबकर चींटी भर का स्थान बना देंगे। शायद चींटी की बहादुरी का एक कारण यह भी है कि उसको हाथी से, औरों की अपेक्षा, ख़तरा भी कम है।
यदि व्यक्ति भौतिक और सामाजिक रूप से चींटी का स्वरूप नहीं ले सकता तो कम से कम अपने ‘इगो' को, अहंकार को तो चींटी स्वरूप बना ही सकता है। तब भी वह बहुत कुछ कर सकने में सक्षम हो जायेगा। चींटी के बराबर हमारा अस्तित्व हो, या कम से कम चींटी के बराबर हमारा अहंकार हो और हममें हौसला हो तथा त्यागमय कर्म हो तो हम हाथी को भी सकारात्मक और सम्यक् रूप से क्रियाशील कर सकते हैं। पूरी व्यवस्था को बाध्य कर सकते हैं कि वह अपनी सोच की दिशा में समुचित परिवर्तन करे। व्यवस्था को संवेदनशील भी बना सकते हैं और क्रियाशील भी।
BY GIRISH PANDEY CCIT, KANPUR