Friday, May 31, 2013

मुझे रावण जैसा भाई चाहिए



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गर्भवती माँ ने बेटी से पूछा
क्या चाहिए तुझे? बहन या भाई
बेटी बोली भाई

किसके जैसा? बाप ने लडियाया
रावण सा, बेटी ने जवाब दिया
क्या बकती है? पिता ने धमकाया
माँ ने घूरा, गाली देती है

बेटी बोली, क्यूँ माँ?
बहन के अपमान पर राज्य
वंश और प्राण लुटा देने वाला
शत्रु स्त्री को हरने के बाद भी
स्पर्श करने वाला
रावण जैसा भाई ही तो
हर लड़की को चाहिए आज

छाया जैसी साथ निबाहने वाली
गर्भवती निर्दोष पत्नी को त्यागने वाले
मर्यादा पुरषोत्तम सा भाई
लेकर क्या करुँगी मैं?

और माँ
अग्नि परीक्षा चौदह बरस वनवास और
अपहरण से लांछित बहु की क़तर आहें
तुम कब तक सुनोगी और
कब तक राम को ही जन्मोगी

माँ सिसक रही थी - पिता आवाक था

Friday, December 21, 2012

VYAVASTHA AUR SAMVEDANSHILTA

चींटी और व्यवस्था
बचपन में एक कहानी सुनी थी, जो आज भी बहुत प्रचलित है।
एक तोता और एक मैना का जोड़ा था। एक बार भयानक सूखा पड़ा। लोग अनाज के दाने-दाने को तड़पने लगे। तोता-मैना उड़ते-उड़ते जा पहुँचे किसी दूर देश में जहाँ उन्हें एक चने का दाना मिला�! उस चने के दाने को उन्होंने अपनी चोंचों से एक खूँटे से रगड़कर दो भागों में तोड़ने की कोशिश की। दाना टूट तो गया, लेकिन दो दालों में से एक दाल उसी खूँटे में फँस गई। मैना चालाक थी और बची हुई दाल को लेकर उड़ गयी। अब तोते के हिस्से की दाल बची और वह भी खूँटे के अन्दर। तोता बढ़ई के पास गया और बोला-
“बढ़ई-बढ़ई खूँटा चीरो,
खूँटे में दाल बा,
का खाई का पीई, का ले परदेस जाई�?”
बढ़ई ने मना कर दिया, “हट तोता, मेरे पास इतना समय नहीं कि खूँटा चीरूँ तुम्हारे छोटे से काम के लिए।” तोता राजा के पास गया और बोला-
“राजा-राजा बढ़ई मारो,
बढ़ई न खूँटा चीरे,
खूँटे में ..................”
राजा ने भी मना कर दिया। तोता रानी के पास गया और बोला-
“रानी-रानी राजा छोड़ो,
राजा न बढ़ई मारे,
बढ़ई ....................”
रानी ने भी मना कर दिया। तोता साँप के पास गया-
“साँप-साँप रानी डँसो,
रानी न राजा छोड़े,
राजा न बढ़ई मारे,
बढ़ई ...................”
साँप ने भी मना कर दिया। तोता लाठी के पास गया।
“लाठी-लाठी साँप मारो,
साँप न रानी डँसे .................
..................................”
लाठी ने भी मना कर दिया। तोता आग के पास गया-
“आग-आग लाठी जारो,
...............................”
आग ने भी मना कर दिया। तोता नदी के पास गया। (यहाँ नदी के स्थान पर कहीं-कहीं समुद्र का जिक्र मिलता है।)
“नदी-नदी आग बुझाओ,
...........................”
नदी ने भी मना कर दिया। तोता हाथी के पास गया-
“हाथी-हाथी नदी सोखो,
............................”
हाथी ने भी मना कर दिया। तोता रोते हुए जा रहा था। उसका विलाप एक चींटी ने सुना। उसने कहा कि चलो मैं तुम्हारी समस्या का समाधान करने की कोशिश करती हूँ। वह सीधे हाथी की सूँड़ के अन्दर घुस गयी और काटने लगी।
हाथी परेशान हो गया और बोला-
“हमें काटो-वाटो मत कोई, हम नदी सोखब लोई”
और वह नदी सोखने नदी के पास जा पहुँचा। नदी बोली-
“हमें सोखो-वोखो मत कोई, हम तो आग बुझाइब लोई”
और इस तरह धीरे-धीरे क्रम आगे बढ़ई तक पहुँच जाता है। बढ़ई राजा से कहता है-
“हमें मारो-वारो मत कोई, हम खूँटा चीरब लोई”
और आखिर में कहानी के दो रूप मिलते हैं-
एक में खूँटा कहता है-
“हमें चीरो-ऊरो मत कोई, हम दाल देब लोई।”
और दूसरे में बढ़ई खूँटा हल्का सा चीर देता है और तोते को दाल मिल जाती है।
बचपन में सुनी इस कहानी को उस समय सुनने में मज़ा तो बहुत आया, किन्तु इसके शाब्दिक अर्थ से अलग हटकर अिधक समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन आज जितना ही सोचता हूँ, इस कहानी को सामाजिक दर्शन के एक शक्तिशाली आयाम को निरूपित करता हुआ पाता हूँ। कभी-कभी तो लगता है कि पूरी सामाजिक और प्रशासनिक प्रक्रिया को जैसे यह कहानी निचोड़ कर हमारे सामने लाकर रख देती है। इन सघन क्रियाओं का जितना सहज निरूपण यह कहानी कर देती है वह शायद कहीं और देखने को नहीं मिलता है।
सबसे अहम भूमिका इस कहानी में चींटी की है। चींटी की विचार-प्रक्रियाओं पर जरा हम विचार करें। आत्म बलिदान तक हो जाने, आत्मोत्सर्ग तक की शक्ति ज़रूर उस चींटी में थी। यदि हाथी ने चींटी को मसल दिया होता तो�? यह ख्‍़ातरा तो चींटी ने उठाया ही था और ऐसी ही चींटियाँ, व्यवस्था की सोच की धारा को बदल सकती हैं।
फिर यह चींटी है कौन�? यदि हम समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वह और कोई नहीं समाज का एक आम आदमी है और हाथी है व्यवस्था। एक अदना सा आम आदमी भी बहुत हद तक बदल सकता है व्यवस्था को। वही बस उठ जाये तो सारी व्यवस्था की सोच में परिवर्तन हो जाता है। लेकिन वह उठेगा हाथी के पास जाने के लिए, हाथी की सोच में परिवर्तन लाने के लिए, तो दब जाने की आशंका तो बनी ही रहेगी और उस आशंका से उठकर जब वह हिम्मत करेगा, तभी वह हाथी की सूँड़ में जाकर हाथी की सोच की दिशा बदल देने की स्थिति में आ पायेगा।
खूँटा, बढ़ई, राजा, रानी, आग, लाठी, नदी और हाथी; ये सभी व्यवस्था के विविध आयाम हैं। विविध फलक हैं। इन सबकी सोच में परिवर्तन हो सकता है, एक छोटी-सी चींटी की उमंग से कि चलो मैं एक सही काम के लिए, व्यवस्था से जूझने के लिए तैयार हूँ, आत्मोत्सर्ग के लिए तैयार हूँ।
यहाँ पर दो बातें और महत्त्वपूर्ण हैं। बढ़ई को केवल खूँटे को जरा सा चीर कर दाना निकाल देना था। राजा को भी बढ़ई को केवल डाँटकर काम करा देना था। किसी को जान का खतरा नहीं था। लेकिन किसी को तोते के प्रति जरा भी संवेदना नहीं हुई। लेकिन चींटी को इतनी संवेदना हुई कि वह जान की बाजी लगाकर हाथी के पास पहुँची। तो व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा के लिए तीव्र संवेदना का होना आवश्यक है।
दूसरी बात यह कि चाहे बढ़ई हो, राजा हो, लाठी हो या साँप हो, हर एक के पास तोता गिड़गिड़ाते हुए गया लेकिन किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। चींटी ने स्वयं ही तोते का दुःख देख उसके रोने का कारण, दुःखी होने का कारण पूछा। यह होती है सच्ची संवेदना। यदि कोई किसी से अपनी ज़रूरत बताये और गिडगिड़ाये और तब वह निराकरण की चेष्टा करे तो वह सच्ची संवेदना नहीं कही जा सकती। सच्ची संवेदना तो यह है कि जब कोई अपनी तरफ़ से दूसरों के दुःख को जानने की कोशिश करे और उसके निराकरण में जुट जाये जैसा कि चींटी ने किया।
यहाँ एक प्रश्न और भी उठता है�? यह तो सच है कि बढ़ई संवेदनहीन था। लेकिन क्या राजा, रानी, साँप, नदी, लाठी, आग भी केवल संवेदनहीन थे�? या उन सबमें निहित स्वार्थवश एक गठजोड़ भी था, जिसकी वजह से न तो वे एक-दूसरे की शिकायत सुनने को तैयार थे और न ही सज़ा देने को। इसकी प्रबल सम्भावना है कि निहित स्वार्थवश उनमें एक गठजोड़ रहा हो और वह केवल भयवश ही अंत में टूट सका।
वैसे इस कहानी में व्यवस्था का एक अच्छा फलक भी देखने को मिलता है। तोते को अपनी बात बेबाक़ कहने के लिए, बढ़ई, राजा, रानी, साँप, लाठी, आग, नदी, हाथी तक पहुँचने को तो मिल गया। वह बेरोक-टोक उनके पास पहुँच तो सका। आज का माहौल शायद और बिगड़ गया है। आज एक छोटा आदमी व्यवस्था के उच्च शिखरों तक पहुँच ही नहीं सकता, इसलिए और भी यह कहानी प्रासंगिक हो जाती है। अब तोते की सारी आशाएँ मात्र चींटी से ही रह जाती हैं।
अब आते हैं इस कहानी के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू पर। तोते के चींटी से मिलने और चींटी के पास जाने तक जो व्यवस्था थी वह अक्रियाशील थी, असंवेदनशील थी। जब चींटी उठी तो पूरी व्यवस्था क्रियाशील हो उठी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था में जो अंग हैं, वे वही हैं। वही बढ़ई है, वही राजा है, वही नदी है, वही लाठी है, वहीं साँप है, वही हाथी है। सब कोई अक्रियाशील थे और थोड़े ही अन्तराल में सब कोई क्रियाशील हो गये, एक चींटी के कमर कस लेने से। किसी को कोई अत्यिधक भागदौड़ भी नहीं करनी पड़ी। बस थोड़ा-सा भय और थोड़ा-सा अपने कर्तव्य का आभास और एहसास हो गया तो पूरी कार्यपद्धति में क्रियाशीलता आ गयी।
तो यही व्यवस्था और इसी व्यवस्था के लोग अच्छा काम कर सकते हैं। यही राजनीतिज्ञ, अिधकारी, नौकरशाह, प्रबन्धक, अध्यापक, व्यापारी, वकील, डॉक्टर सभी ठीक से काम कर सकते हैं। बस आम आदमी को चींटी बनना होगा।
चींटी भी एक सांकेतिक बिम्ब है। चींटी निरूपित करती है सीढ़ी में जो सबसे नीचे और छोटा-सा बिन्दु है उसे। उसके दबने की भी गुंजाइश कम रहती है। चींटी ने तो व्यवस्था में परिवर्तन कर दिया लेकिन क्या एक कुत्ता वह कर पाता जो चींटी ने किया�? कुत्ता तो हाथी को देखकर भागता। उसे दूर से ही देखकर भौंकता रहता। एकदम नज़दीक जाने की हिम्मत नहीं करता। हाथी एक बार चिंघाड़कर सिर्फ उधर देखता तो वह काफी दूर तक दौड़कर भाग जाता।
चींटी की जगह पर उससे बड़ा जीव इस कहानी में नहीं आया। चींटी को दबाने में, कुचलने में भी हाथी को परेशानी है। चींटी से बड़े जीव जैसे मेढक या चूहे को हाथी आसानी से अपने पैरों से या सूँड़ से दबा सकता है। शरीर की क्षुद्रता के साथ अदृश्यता भी जुड़ी है, जो जितना छोटा होगा, उतना ही कठिनता से दिखेगा। चींटी को तो हाथी बमुश्किल देख पायेगा और साथ ही पैर से यदि दबाता भी है तो भी चींटी शायद ही मरे, जब तक कि वह हाथी के नाखूनों की चपेट में न आ जाये। हाथी के पैर ही जरा सा दबकर चींटी भर का स्थान बना देंगे। शायद चींटी की बहादुरी का एक कारण यह भी है कि उसको हाथी से, औरों की अपेक्षा, ख़तरा भी कम है।
यदि व्यक्ति भौतिक और सामाजिक रूप से चींटी का स्वरूप नहीं ले सकता तो कम से कम अपने ‘इगो' को, अहंकार को तो चींटी स्वरूप बना ही सकता है। तब भी वह बहुत कुछ कर सकने में सक्षम हो जायेगा। चींटी के बराबर हमारा अस्तित्व हो, या कम से कम चींटी के बराबर हमारा अहंकार हो और हममें हौसला हो तथा त्यागमय कर्म हो तो हम हाथी को भी सकारात्मक और सम्यक् रूप से क्रियाशील कर सकते हैं। पूरी व्यवस्था को बाध्य कर सकते हैं कि वह अपनी सोच की दिशा में समुचित परिवर्तन करे। व्यवस्था को संवेदनशील भी बना सकते हैं और क्रियाशील भी।
BY GIRISH PANDEY CCIT, KANPUR

Thursday, April 5, 2012

उसी गाँव में चलते है


बड़ा भोला बड़ा सादा बड़ा सच्चा है, तेरे शहर से तो मेरा गाँव अच्छा है !

वहां मैं मेरे बाप के नाम से जाना जाता हूँ,  और यहाँ मकान नंबर से पहचाना जाता हूँ !

वहां फटे कपड़ो में भी तन को ढापा जाता है , यहाँ खुले बदन पे टैटू छापा जाता है !

यहाँ कोठी है बंगले है और कार है,  वहां परिवार है और संस्कार है !

यहाँ चीखो की आवाजे दीवारों से टकराती है,  वहां दुसरो की सिसकिया भी सुनी जाती है !

यहाँ शोर शराबे में मैं कही खो जाता हूँ , वहां टूटी खटिया पर भी आराम से सो जाता हूँ!

 यहाँ रात को बहार निकलने में दहशत है,  वहां रात में भी बहार घुमने की आदत है !

यहाँ मिस्टर रविंदर कह कर बुलाते है , वहां रविंदर काका कह कर चरणों में शीश झुकाते है !

मत समझो कम हमें, की हम गाँव से आये है , तेरे शहर के बाज़ार,मेरे गाँव ने ही सजाये है!

 वह इज्जत में सर सूरज की तरह ढलते है,  चल आज हम उसी गाँव में चलते है .....

........ उसी गाँव में चलते है



Thursday, February 16, 2012

7 Habits of Highly Excellent People



Are you driven in life? Do you love to excel? I believe all of us do. We are born to be the best we can be and to make the best out of our lives.

When I was in high school, I wasn't exactly the kind of student teachers would like. I was truant, didn't do my homework and did badly on my examinations. I was lazy and unmotivated in school. However, after a while I realized that this wasn't who I wanted to be. This wasn't the life I saw myself leading. People around me were judging and negative, and I had enough of all of that crap. I had enough of being discriminated against and I decided to turn everything around from then on.

So when I entered University, I began to get my act together. For the 3 years I was in Business School, I was on the Dean's List (an honor roll for the top students in the faculty). I eventually graduated as the top student in my specialization of marketing and was awarded with accolades for being the most outstanding student. When I started working, I entered one of the top companies for marketers, a Fortune 100 company, and led my business portfolios to record breaking results in the few years I worked there.

Then 2 years ago, I left my regular job to pursue my true passion in personal development. I started The Personal Excellence Blogwhere I share my best advice and help others achieve personal excellence and live their best lives. It has quickly established itself as a trusted and coming-to-age personal development blog, having 3-4k readers a day and being featured by prominent media, including CNN.com.

After years of striving for personal excellence, working with top people in their fields and observing top people in their fields, I realized that there are universal habits that enable people to achieve excellence. As Aristotle would put it, “We are what we repeatedly do. Excellence then, is not an act, but a habit.”.

These habits aren't "ingrained", or "genetic"; they are habits that anyone like you and me can cultivate. Just like Stephen Covey's 7 habits will help anyone become highly effective, these 7 habits of highly excellent people will help anyone become excellent. I find that as long as anyone practices these habits, excellence is always a given. And I'm more happy to share with you these habits in this article today. Here they are:
  1. Have the end in mind.
    This is the same habit as Stephen Covey's 1st habit, and with good reason. Everything starts with the end - the goal or the vision you want to fulfill. If you don't know what the end is, then there's no way of getting there, is there? Imagine getting into a cab. What do you first do when you get into the cab? Maybe you say hi to the taxi driver, then what? You tell the driver where you want to go, so that he can take you there. Similarly, you need to know what is the end you want to reach in order to get there.

    Hence, it's critical that you form clear goals of what exactly you want. What do you want? What is the end you envision? What are your personal goals and dreams for yourself? Personally, I have a vision board beside my bed where I have my dreams plastered over it. These dreams include developing The Personal Excellence Blog into one of the top personal development blogs, running my international personal excellence school, speaking to tens and thousands of people in seminars, achieving world peace, finding my soul mate, hitting the best seller's list with my books, and so on. These dreams remind me of what exactly I want and drive me forward every day.
  2. Do what you love.
    When you do something you love, it's like you have unlimited fuel that keeps you going- day after day. The hunger to excel in it is just greater than if you do anything else. Every day, I'm endlessly driven to build and write at my blog, because it's for a cause I believe in. Helping people grow and live their best life is the one thing I know I want to be doing for the rest of my life.

    I have a coaching client who has tried to start 4-5 different ventures before (one at a time), and he was never able to succeed in any of them. Why was this the case? It wasn't that he was stupid, or that he was lazy. Ultimately, the reason was because he wasn't passionate about the things he was pursuing - he was just chasing money. The nature of the business didn't appeal to him emotionally. This is not to say starting businesses because you want to earn money is bad - all I'm saying is it's important that you love what you want to do first and foremost.

    What is it you love to do? If you are not sure what your passion is yet, then what is something you are most eager to try at the moment? If you can choose to do anything, what will it be? Your love and interest are fuels that will drive you towards excellence.
  3. Work harder than anyone else.
    I don't know of anyone who has achieved excellent results who hasn't worked hard for them. A big component of excellence is hard work. Sheer, unadulterated hard work. We can streamline processes, choose effective strategies and steps, but ultimately the hard work will still have to come in. Fortunately, if you are doing what you love (step #2), work wouldn't even be work at all.

    In the past year since I set up The Personal Excellence Blog, I have spent countless hours, including weekends, building up the blog and writing high quality articles for readers out there. All these have paid off in their own way. I'm not saying you should abandon all social life because that defeats the purpose, but you will have to dedicate yourself to making your business a success. This year in 2010, I intend to increase my efforts even more compared to 2009, and I know it's going to pay off.
  4. Make use of every moment.
    Every moment counts. Excellent people know that time is highly valuable. There's this quote by Donald Trump which I read in one of his books, and I absolutely love it. He said that time is more precious than money, because you can earn back money, but you can't get back time. That is absolutely true.

    Hence, I'm always making sure that I'm maximizing every moment. If I'm commuting over a distance, I'll pick up a book or listen to a podcast. If I'm out waiting for a friend, I'll take the chance to do something meaningful for the time being. If there are some pockets of time, I'll take out my laptop and do some work.

    Note that this habit doesn't mean working like a hog, 24x7. That wouldn't be a true application of this habit. Making use of every moment also refers to knowing when to rest and rejuvenate when it's needed, because this will help us walk the longer mile on the path of excellence.
  5. Take action to achieve your results.
    Living a life of excellence means being a proponent of action. Many people often say "The sky is the limit". My personal philosophy is the sky isn't the limit; we are the limit. Whatever we do or don't do will determine how much we can grow or achieve. If we want to grow and achieve great results, we need to take the equivalent actions to reach the results we want.

    For example, many people agree that having press and media feature their business can greatly benefit them, but they believe it only happens when you are prominent enough. While that's usually true, I refuse to let that stop me. I took proactive steps to reach out to the press, writing my own press release and creating a strong story angle so the press would want to feature me. To date, I've been featured in the press for almost 20 times. To read more about how to be featured by the press, you can check out my guest post at Problogger: How To Get Featured By the Press (Repeatedly) Even If Your Blog is New.
  6. Continuously upgrade yourself.
    Learning never stops. There is always something we can do to become better. We may have great skills and knowledge today, but no matter how great they may be, our skills need to be continuously developed. Excellent people are always learning, reading, exposing themselves to new knowledge, new people, new contexts and developing their skills. If you have played role-playing games or RPGs before, you would know that the characters need to be leveled up to get stronger and progress to the next level. Likewise, we need to always be leveling ourselves up to achieve excellence.
  7. Ask for feedback.
    No matter how much we try to improve, we will have blind spots. Blind spots are things about ourselves that we don't know about, and we can't improve on things that we are blind to. Asking for feedback is one of the fastest and most effective ways to improve.

    For everything I do, I make it a point to gather feedback. For example, when I was in my previous job, I would often ask my manager and peers for feedback on how I could improve. With my friends, sometimes I would have a random feedback session with them on how I can do things better. As I run The Personal Excellence Blog, I would invite my readers to send in their feedback, either through comments, emails or private messages. Sometimes the feedback is predictable, sometimes it's not and many times it leads to an epiphany on some level.
  8. Strive for #1 in what you do.
    ... Wait, you didn't think that there would just be 7 habits in achieving excellence, did you?

    There's 1 final habit to become a highly excellent person - that is, to strive for #1 in what you do. No one's going to achieve excellence if they aim for average, or mediocrity. Excellence comes from aiming for the top - being #1. This #1 should be better than whoever is #1 at the moment, because it will spur you on to work even harder. You will only achieve great results when you set high standards for yourself.

    For example, I aim for The Personal Excellence Blog to be the top personal development blog, both in terms of the quality of content and traffic. Whenever I write my articles, I make sure I'm giving the best value that can ever be offered in that topic. Because of this, readers recognize the value of my articles and have spread the word to their friends and family. This has helped the blog to grow quickly and establish itself as a trusted and coming-of-age blog in personal excellence.
Closing
These habits have helped me to achieve excellence in my life, and as long as all of us practice them, we will achieve excellent results. Feel free to share your comments - I'll love to hear what you have to say. If you have any questions, I'll love to answer them where possible too. I don't claim to have the answers, but I'll most certainly offer my perspective and help where I can.

Sunday, December 25, 2011

व्यंग्य (Vyangya) - शैल चतुर्वेदी (Shail Chaturvedi)


हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा
और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?"
तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।"
खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।"
पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था
उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ।
अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं
हमें व्यंग्य मत सुनाओ
जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा
और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर
कुर्सी को कैश करता रहा।

व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ
जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा
और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा।
व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ
जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा
और झूठी गवाही को पुलिस का संस्कार मानता रहा।
व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ
जो पचास रूपये फ़ीस के लेकर
मलेरिया को टी०बी० बतलाता रहा
और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा।

व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ
जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा
और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा।
व्यंग्य उस सास को सुनाओ
जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया
और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ
जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए
नारी को बाज़ार दिया।
व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ
जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा
और बकवास को बढ़ावा देने के लिए
वंस मोर करता रहा।

व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ
जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए
वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा
और अपना उल्लू सीधा करने के लिए
व्यंग्य को विकलांग करता रहा।

और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो
तीर नहीं बन सकता
आज का व्यंग्यकार भले ही "शैल चतुर्वेदी" हो जाए
'
कबीर' नहीं बन सकता।